एशिया के सर्वश्रेष्ठ महलों में लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस का नाम सबसे ऊपर
महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के मुख्यालय के रूप में पहचाना जाता है
देहरादून। 19वीं शताब्दी में निर्मित एशिया के सर्वश्रेष्ठ महलों में लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस का नाम सबसे ऊपर रखा जाता है। फ्रेंच वास्तुशिल्प से बना लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस आज एक यूनिवर्सिटी के रूप में प्रयोग किया जा रहा है, लेकिन इसकी खूबसूरती और सुविधाओं के चर्चे 1893 में प्रकाशित लंदन टाइम्स के मुख्य पन्ने पर जगह बना चुकी है। वैसे हाल के वर्षों में हुए एक ताजा सर्वे में भी इस महल को भारत का 15वां सबसे सुदर वास्तुशिल्प वाला महल बताया गया है।
इसके निर्माण के पीछे कुछ जरुरत, तो कुछ परंपरा मानी जाती है। दरअसल खंडवाला राजवंश में नये डीह को नयी शुरुआत का बोधक माना जाता है। महेश्वर सिंह के निधन के बाद उनके दोनों बेटों के नबालिग होने के कारण तिरहुत की सत्ता कोर्ट आफ वार्डस को चली गयी। अंग्रेजों के हाथों तिरहुत का प्रशासन जाने से कई चीजें व्यवस्थित हुई और तिरहुत के राजस्व में एतिहासिक बढोतरी हुई। यही कारण रहा कि जब पटना कॉलेज में तिरहुत के नये महाराजा के रूप में लक्ष्मेश्वर सिंह का राज्याभिषेक हुआ, तो उनकी पूंजी उनके पिता के मुकाबले कई गुणा अधिक हो चुकी थी। अंग्रेजी शिक्षा व आधुनिक सोच वाले तिरहुत के महाराजा के लिए पुराना छत्र निवास पैलेस छोटा और पारंपरिक था। ऐसे में 1882 में तय हुआ कि नये महाराज के लिए एक महल और एक सचिवालय का निर्माण कराया जाये। लक्ष्मेश्वर सिंह चाहते थे कि उनका महल छत्र विलास पैलेस से पूर्व बने, लेकिन मिथिला के पंडितों ने नरगौना तहसील से आगे जाने पर सत्ता जाने की आशंका जता दी, इसके बाद छत्र विलास पैलेस के पीछे आनंद बाग में नया महल बनाने की योजना तैयार हुई, जबकि सचिवालय छत्रविलास पैलेस से दक्षिण मोती महल के नाम से बनाने का फैसला हुआ।
पैलेस ऑफ वरसाइलज से प्ररित है वास्तुशिल्प
19वीं और प्रारंभिक 20वीं शताब्दी में पश्चिमी देशों में बड़ी शीघ्रता से विकास हुआ, फ्रांस इसका केंद्र था। इसलिए महाराजा लक्ष्मेश्वर सिंह ने अपने नये पैलेस के लिए भी फ्रांस को ही याद किया। कला, वास्तुशिल्प और विदेशी भवन निर्माण शैली के जुनूनी महाराजा की विरासत आज भी उस दौर की समृद्धि की साक्षी है।फ्रांस के प्रसिद्ध पैलेस ऑफ वरसाइलज व पैलेस ऑफ फाउंटेन ब्लू के डिज़ाइन पर निर्मित लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस फ्रांसीसी वास्तुकारों द्वारा निर्मित महल उनके वास्तु प्रेम को बयां करते हैं। तकरीबन 500 सौ एकड़ में फ्रांसीसी आर्किटेक्ट डीबी मारसेल द्वारा डिजाइन किया गया लाल व पीले रंग का यह पैलेस विभिन्न प्रकार के करीब 100 कमरो से सुसज्जित है। इसके निर्माण में लगे आठ वर्ष इसकी भव्यता के परिचायक हैं। इस महल का दरबार हॉल, फ्रांस के दरबार हॉल का नैनो वर्जन माना जाता है। फाल्स सिलिंग पर रत्न जरित कलात्मक छवि के साथ-साथ चारो ओर युवतियों की प्रतिमाओं की ऐसी छवि शायद ही भारत के किसी अन्य दरबाल हॉल में देखने को मिलती है। इसके बेंकेट हॉल की खूबसूरती मुगल और राजस्थानी शैली को भी कहीं पीछे छोड देती है। दीवालों पर रत्न जरित कलाकारी देखने दूर-दूर से लोग आते थे। 1932 में भारत के तत्कालीन वासराय ने इस महल को देखकर इतना रोमांचित हुए थे कि इसके डांस रूप में नाचने से खुद को नहीं रोक पाये।
छत्र विलास पैलेस के जमाने तक समय का ज्ञान महल में लगे घंटे बजाकर कराया जाता था, लेकिन इस पैलेस में पहली बार लंदन से लायी गयी घड़ी से समय का ज्ञान कराया जाने लगा। यह भारत का संभवत: पहला महल है, जिसके अंदर महिलाओं के स्नान के लिए तरणताल का निर्माण हुआ था। इससे पूर्व तालाबों और नदियों में ही स्नान की पंरपरा रही थी। इसके दरबार हॉल में भी महिलाओं के लिए खास तौर पर जगह निर्धारित किया गया था। इस पहले में पहले दीये से रोशनी की व्यवस्था थी लेकिन 1939 में इसमें बिजली ममुहैया करा दी गयी। इस महल का रोशनदान आज भी अपने सौंदर्य की कहानी कहता है। आज इस महल की हालत बेहद खराब है। दरबार हॉल में पानी रिसता है। लकडी की सीढियां हिलने लगी हैं। फायरवॉल में कागजात रखे जाते हैं तो तरणताल में कार्यालय चलता है। कहने को राज्य सरकार ने इसे धरोहर घोषित कर रखा है, लेकिन इसके आसपास बेतरकीब निर्माण बदस्तूर जारी है और खतरनाक जगहों पर भी लोगों को जाने से प्रतिबंधित नहीं किया गया है। कमाल की बात यह भी है कि इस हल के बनने के करीब पांच साल बाद बने कूचबिहार पैलेस को सौ साल पूरे होने से पूर्व ही एएसआइ ने अपने अधीन कर लिया, जबकि सौ वसंत देख चुके इस पैलेस के प्रति उसका रवैया आज भी उदासीन है।
लक्ष्मेश्वर विलास पैलेस अपने बगान के लिए भी विश्व प्रसिद्ध है। 20वीं शताब्दी के महान बागवान चाल्स मैरिज को इस महल का मुख्य बागवान नियुक्त किया गया था। करीब 41 हजार पेडों से सुसज्जित इसका बगान एशिया का सबसे समृद्ध बोटेनिकल व जुलसॅजिकल गार्डेन माना गया है। अकेले आम की ही ऐसी 40 प्रजाति यहां विकसित की गयी जो दुनिया में और कहीं नहीं थी। नरगौना तहसील आम के बगान के लिए अकबरनामा में भी उल्लेखित है। चाल्स मैरिज ने पुराने आम बगान में विभिन्न प्रकार के अन्य महत्वपूर्ण पेड लगाकर इसे सर्वश्रेष्ट बना दिया। बाद में चाल्स मैरिज ब्रिटेन की महारानी का मुख्य बागवान के रूप में नियुक्त होकर इंग्लैड चले गये। आज इस बगयान की लगभग 60 फीसदी पेड काटे जा चुके हैं। महाराजा कामेश्वर सिंह ने इस महल को पहले निजी विश्वविद्यालय के रूप में सरकार को दान दे दिया। 1960 में दान देने के उपरात यह महल कामेश्वर सिंह संस्कृत विश्वविद्यालय के मुख्यालय के रूप में पहचाना जाता है।