1980 में रवि चोपड़ा ने ‘द बर्निंग ट्रेन’ नाम से एक हिंदी फिल्म बनाने का साहस दिखलाया
फ़िल्म का बैकग्राउंड संगीत भी अच्छा कहा जा सकता है।
देहरादून, 07 जुलाई। भारत में या कहूँ कि बॉलीवुड में हम मानवों द्वारा या सीधे तौर पर हमारी वजह से होने वाली तबाही पर बहुत कम, लगभग न के बराबर ही फिल्में बनी हैं पर इसी विषय में 1980 में रवि चोपड़ा ने ‘द बर्निंग ट्रेन’ नाम से एक हिंदी फिल्म बनाने का साहस दिखलाया था। इस फ़िल्म में विनोद खन्ना, धर्मेंन्द्र, परवीन बॉबी, हेमा मालिनी, जितेंद्र, विनोद मेहरा, डैनी, नीतू सिंह, नवीन निश्चल और सिमी ग्रेवाल जैसे कलाकारों ने मुख्य भूमिका निभाई थी। इस फ़िल्म की कहानी में एक रेलवे इंजीनियर विनोद अपनी ज़िंदगी का सबसे बड़ा सपना सच करने और भारत की सबसे तेज़ चलने वाली पैसेंजर ट्रेन बनाने में सफल रहता है। ये ट्रेन पहली बार बंबई से दिल्ली के सफर के लिए रवाना होती है पर विनोद से जलन रखने वाले और उसके बनाये ट्रेन के प्रोजेक्ट को हरी झंडी न मिलने से उससे नाराज़ रेलवे इंजीनियर रणधीर उस ट्रेन के इंजन में बम लगा देता है जिसे पूरी ट्रेन बेकाबू हो जाती है। फ़िल्म के उत्तरार्द्ध यानि अपर हाफ की कहानी इस बेकाबू हो चुकी ट्रेन को काबू करने और इसमें बैठे यात्रियों की जान बचाने की कोशिशों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है। अब पहले फ़िल्म के सकारात्मक पहलुओं की बात करें तो कलाकारों का मेला लगे होने के बावजूद सभी का काम अच्छा या बहुत अच्छा है। फ़िल्म का विषय सामान्य फिल्मों की कहानियों से अलग है और रोमांचित करती है। फ़िल्म का बैकग्राउंड संगीत भी अच्छा कहा जा सकता है। इस फ़िल्म के दो गीत ‘पल दो पल का साथ हमारा, पल दो पल के याराने हैं’ और ‘तेरी है ज़मीं, तेरा आसमाँ, तू बड़ा मेहरबान, तू बख़्शीश कर’ सुपरहिट रहे थे। अब आते हैं इस फ़िल्म के नकारात्मक पहलुओं पर तो फ़िल्म की लंबाई अनावश्यक रूप से लंबी है जिसे फालतू का रोमांस, लव एंगल और अनावश्यक गानों को हटा कर 30-45 मिनट तक आराम से कम की जा सकती थी। वो क्या है कि बॉलीवुड में एक विशेष चलन है कि फ़िल्म चाहे साइंस फिक्शन ही क्यों न हो, ये लोग रोबोट से भी आइटम सांग करवा ही लेते हैं। दूसरा, मूवी चाहे किसी भी विषय पर हो, उसमें भी लव एंगल और रोमांटिक गाने ठूँसने का जुगाड़ बना ही लेते हैं। इस फ़िल्म का दूसरा नकारात्मक पहलू स्पेशल इफेक्ट्स हैं जो कुछ जगह औसत तो कुछ जगह बेहद बचकाने से लगते हैं जिन्हें देख कर हँसी आने लगती है। ओवरऑल ये एक अच्छी, साफ-सुथरी फ़िल्म है जिसे आप आराम से अपने पूरे परिवार के साथ बैठ कर देख सकते है और कम से कम एक बार देखे जाने लायक़ तो ज़रूर है।