उत्तराखंड समाचार

रोमांटिक-कॉमेडी फ़िल्म ‘चश्मेबद्दूर’

1981 में आयी थी रोमांटिक-कॉमेडी फ़िल्म 'चश्मेबद्दूर'

देहरादून।1970 और 1980 के दशक में अमोल पालेकर जी की तरह ही एक और कमाल के अभिनेता थे फ़ारूख़ शेख़ जी जिनकी फिल्मों में आम आदमी की झलक होती थी और हर मध्यम वर्गीय परिवार खुद को उनकी फिल्मों की कहानियों और किरदारों से जुड़ा हुआ महसूस कर पाता था। 1981 में फ़ारूख़ शेख़ जी की एक रोमांटिक-कॉमेडी फ़िल्म ‘चश्मेबद्दूर’ आयी थी जिसका निर्देशन साई परांजपे जी ने किया था। इस फ़िल्म में संगीत राज कमल जी का था, बोल इंदु जैन जी के लिखे हुए थे और गीतों को स्वर येसुदास जी और हेमंती शुक्ला जी ने दिया था। ये फ़िल्म एक ही छोटे से फ्लैट में रहने वाले तीन मध्यम वर्गीय दोस्तों सिद्धार्थ पराशर(फ़ारूख़ शेख़), ओमी शर्मा (राकेश बेदी) और जोमो लखनपाल (रवि बासवानी) की कहानी है जिनमें से एक दोस्त सिद्धार्थ तो अपनी पढ़ाई, अपनी नौकरी और अपने करियर को ले कर संजीदा रहता है जबकि बाकी दोस्त ओमी और जोमो उससे ठीक उलट अपनी ज़िंदगी को ले कर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। उन दोनों की ज़िंदगी का मुख्य उद्देश्य ही सिर्फ मौज-मस्ती करना है। उन तीनों की ज़िंदगी तब करवट लेती है जब उन तीनों की ज़िंदगी में एक सीधी-सादी, मासूम सी लड़की नेहा (दीप्ति नवल) आ जाती है। नेहा को पटाने की कोशिश तो ओमी और जोमो भी करते हैं पर बुरी तरह से असफल रहते हैं पर जब वो देखते हैं कि नेहा उनके दोस्त सिद्धार्थ को पसंद करने लगी है तो दोनों जल उठते हैं और उससे बदला लेने की ठान लेते हैं। इस फ़िल्म राग मेघ पर आधारित एक गीत ‘कहाँ से आये बदरा, घुलता जाए कजरा’ फ़िल्म के सबसे ज्यादा पसंद किया गया गीत था और काफी लोगों को आज भी बेहद पसंद है। इस फ़िल्म की सबसे ज्यादा खूबसूरती इसकी सादगी में है। ना कोई महलों जैसे घरों के सेट्स, ना ही हीरोइन के चेहरे पर मेकअप की दुकान, ना ही किसी कलाकार की ओवरएक्टिंग और ना ही कॉमेडी के नाम पर फूहड़ता और द्विअर्थी संवादों की उपस्थिति। यहाँ तक कि लल्लन मियाँ (सईद जाफ़री) की पान-सिगरेट की टपरी भी वैसी ही लगती है जैसी आपको आज भी हर गली -नुक्कड़ में मिल जाएगी। फ़िल्म में एक दृश्य है जिसमें ओमी और जोमो एक लड़की का पीछा करते हैं। फ़िल्म में ऐसे ही कुछ और दृश्य भी हैं जिनमें ये दोनों लड़कियाँ पटाने की कोशिश करते दिखते हैं। फिर भी ऐसे दृश्यों में भी कहीं भी अश्लीलता और भौंडेपन की झलक तक भी दूर-दूर तक भी नहीं दिखती। ये चीज़ ये दिखाती है कि ऐसे दृश्यों को भी पूरे नारी सम्मान के साथ दिखाया जा सकता है। इसी तरह फ़िल्म में एक दृश्य और है जिसमें नेहा की दादी माँ (लीला मिश्रा) तीनों लड़कों के फ्लैट पर पहुँचती है और अंदर घुसते ही उन्हें फ्लैट के कमरों की दीवारों पर बिकिनी पहनी हुई लड़कियों की तस्वीरें अखबारों और फिल्मी मैगज़ीनों से काट कर चिपकाई हुई दिखती हैं। आगे के दृश्य में दादी माँ को देखते ही ओमी और जोमो का उन तस्वीरों को छुपाने की कोशिश करना ताकि दादी देख ना सकें, ये दर्शाता है कि वो अपनी मर्ज़ी से जीना ज़रूर चाहते हैं पर साथ ही उन्हें बड़ों का सम्मान करना भी पता है और साथ ही उन्हें सही-गलत का भी पूरा एहसास है। ऐसे में दादी जी भी शांति और समझदारी से ओमी और जोमो से ऐसी तस्वीरों की जगह अच्छी और भगवान की तस्वीरें लगाने की सलाह देती हैं। इसी दृश्य से जवान, कुँवारे लड़कों का घर से दूर रहने पर उनके अल्हड़पन भरे जीवन की झलक भी दिखती है। अमोल पालेकर जी की फिल्मों की तरह फ़ारूख़ शेख़ जी की फिल्में भी पूरे परिवार के साथ बैठ कर देखने योग्य होती थीं और ये फ़िल्म भी अपवाद नहीं है।

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