उत्तराखंड समाचार

मोडिफाइड हो गई हल्दी की रस्म

ग्रामीण परिवेश में नई रस्म का जन्म

देहरादून। आज कल ग्रामीण परिवेश में होने वाली शादियों में एक नई रस्म का जन्म हुआ है। हल्दी रस्म के दौरान हजारों रूपये खर्च कर के विशेष डेकोरेशन किया जाता है, उस दिन दूल्हा या दुल्हन व पूरा परिवार, रिश्तेदार विशेष पीत (पीले) वस्त्र धारण करते हैं। साल दो साल पूर्व इस हल्दी रस्म का प्रचलन पश्चिमी राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्रों में तो ना के बराबर था, लेकिन पिछले साल दो साल से इसका प्रचलन बढ़ा है। पुराने समय में जरूर दूल्हे दुल्हन के चेहरे व शरीर की मृत त्वचा हटाने, मुलायम करने व चेहरे को गोरा और चमकदार बनाने के लिए हल्दी, चंदन, आटे, दूध आदि का उबटन बनाकर शरीर पर लगाया जाता था। पुराने समय में ना तो आज की तरह साबुन व शैम्पू थे ना ही ब्यूटी पार्लर। हल्दी के उबटन से घिसघिस कर दूल्हे दुल्हन को गोरा किया जाता था। वो रस्म साधारण तरीके से शादी वाले दिन ज़रूर निभाई जाती रही है। बुजुर्ग तो कहते है कि नाडी पर भेड़ों को धुलाने के लिए मिट्टी का बाथ टब बनाया जाता था, भेड़ों को धोने के बाद उसके पानी से दूल्हे को उससे नहाया जाता था, जिससे दूल्हे के रंग में निखार आ जाता था। लेकिन आजकल की हल्दी रस्म मोडिफाइड हो गई है। जिसमें हजारों रूपये खर्च कर डेकोरेशन किया जाता है। महंगे पीले वस्त्र पहने जाते है और यह पीला ड्रामा किया जाता है। आजकल देखने में आ रहा है कि आर्थिक रूप से असक्षम परिवार के लड़के भी इस लोक दिखावा में शामिल होकर परिवार को कर्ज के बोझ में धकेल रहे है। क्योंकि उन्हें अपने छुट भईए नेताओं, चवन्नी छाप दोस्तों को अपना ठरका दिखाना होता है। फेसबुक आदि के लिए रील बनानी होती है। बेटे के रील बनाते बनाते बाप बिचारा रेल बन जाता है। ऐसे ऐसे घरों में फिजूल खर्ची में पैसा पानी की तरह बहाया जाता है जिन घरों में घर के नाम पर छप्पर है, घर की किवाड़ी नहीं है, बाप ने पसीने की पाई-पाई जोड़ कर मकान का ढांचा खड़ा किया तो छत नहीं है, छत है तो प्लास्टर नहीं, प्लास्टर है तो दरवाजा नहीं है, बाप के पहनने के चप्पल नहीं है मां के ओढ़ने के लिए ढंग की चुनरी नहीं है लेकिन 10 वीं 12 वीं मरते डूबते पास करने वाले छिछोरे मां बाप की हैसियत से विपरीत जाकर अनावश्यक खर्चा जरूर करते हैं। ऐसे लड़के 1 रुपए की मजदूरी करना नहीं चाहते और सूखे दिखावे के चक्कर में मां बाप को कर्ज में धकेल देते हैं। ऐसे लड़कों के सैकड़ों ऐसे ही लूखे दोस्त होते हैं जिन्हें ये लोग प्यार से ब्रो कहते है। शादी विवाह में अपना स्टेटस बनाने के लिए जिसको ढंग से जानते भी नहीं उन्हें भी शादी में इन्वाइट करेंगे। किसी से सिफारिश लगाकर प्रधान, विधायक और नेताओं को बुलाते हैं ताकि गांव में इनका ठरका जमे। बहुत सारी गाडियां घर के आगे खड़ी देखने की उत्कंठा रखते हैं। किसी को बुलाए कोई आपत्ति नहीं लेकिन उन बड़े लोगों के साथ फोटो सेल्फी लेने में और उनके आगे पीछे घूमने में इतने मशगूल हो जाते है कि घर आए जीजा, फूफा, नाना, नानी, बहन, बुआ अड़ोसी पड़ोसी को चाय पानी का भी पूछना उचित नहीं समझते। अपने रिश्तेदारों की इस तरह की नाकद्री ठीक नहीं है। जरूरत पड़ने पर यही लोग सबसे आगे खड़े होते हैं जिन्हें आप हाशिए पर धकेल देते हो। अन्य बहुत सारी फिजूलखर्ची जैसे डीजे बुक करवाना, लाइट डेकोरेशन करना, वीडियो शूट व ड्रोन कैमरा मंगाना, 5- 7 जोड़ी ड्रेस मंगवाना, 3-4 साफे, शेरवानी, घोड़ी, पाइप पांडाल, स्टेज, पटाखे, एक वो झाग वाला डबिया। जिन परिवारों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं हो उन परिवारों के बच्चों को मां बाप से जिद्द करके इस तरह की फिजूल खर्ची नहीं करवानी चाहिए। आजकल काफी जगह यह भी देखने को मिलता है कि बेटे मां – बाप से कहते है आप कुछ नहीं समझते। उन्हें उपमा देते हैं ‘घोना, धण।’ मैं जब भी यह सुनता हूं पांवों के नीचे जमीन खिसक जाती हैं। बड़ी चिंता होती हैं कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है।

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