अनेक राज्यों में संघ के काम को गति देने वाले थे ब्रह्मदेव
ब्रह्मदेव जी सचमुच उसके बाद अपने घर नहीं गये। यह व्रत 16 वर्ष बाद बहिन के विवाह के समय पिताजी के आग्रह पर ही टूटा
देहरादून। दिल्ली और आसपास के अनेक राज्यों में संघ के काम को गति देने वाले श्री ब्रह्मदेव जी का जन्म 15 जून, 1920 को नजफगढ़ (दिल्ली) में हुआ था। उनके पिता श्री नेतराम शर्मा एवं माता श्रीमती भगवती देवी थीं।1936 में उन्होंने हाईस्कूल तथा 1940 में दिल्ली विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक की उपाधि प्राप्त की। 1937 में हिन्दू महासभा भवन में लगने वाली शाखा में वे स्वयंसेवक बने। इसके बाद उनका समर्पण संघ के प्रति बढ़ता गया। शिक्षा पूरी कर उन्होंने मेरठ के सैन्य लेखा कार्यालय में नौकरी की। वहां एक अंग्रेज अधिकारी ने उनकी एक छोटी सी गलती पर सभी भारतीयों के लिए अभद्र टिप्पणी की। इससे रुष्ट होकर उन्होंने नौकरी छोड़ दी। इसके बाद वे दिल्ली आकर सेना मुख्यालय में नौकरी करने लगे; पर यहां भी उनका मन नहीं लगा और 1943 में मेरठ से संघ शिक्षा वर्ग प्रथम वर्ष का प्रशिक्षण लेकर वे प्रचारक बन गये। इस निर्णय से घर वाले बहुत नाराज हुए। उनके पिताजी ने डांटते हुए कहा कि आज के बाद मुझे अपना मुंह नहीं दिखाना। ब्रह्मदेव जी सचमुच उसके बाद अपने घर नहीं गये। यह व्रत 16 वर्ष बाद बहिन के विवाह के समय पिताजी के आग्रह पर ही टूटा। प्रचारक बनने पर सर्वप्रथम उन्हें अम्बाला में जिला प्रचारक बनाकर भेजा गया। इसके बाद वे वहीं विभाग प्रचारक भी रहे। विभाजन के समय आतताइयों को उन्हीं की भाषा में जवाब देने वालों में वे अग्रणी पंक्ति में रहते थे। पंजाब में काम का अनुभव लेने के बाद 1959 में उन्हें राजस्थान का प्रान्त प्रचारक बनाया गया। राजस्थान के नगरों, गांवों और सीमावर्ती ढांढियों तक फैले संघ के काम का बहुतांश श्रेय उन्हें ही है। वे प्रतिवर्ष हर जिले में जाते थे। उन्होंने राजस्थान की प्रत्येक तहसील का दौरा किया। इससे प्रचारक संख्या कम होने पर भी राजस्थान की शाखाओं में संख्यात्मक तथा गुणात्मक वृद्धि हुई। आपातकाल की समाप्ति के बाद उन्हें दिल्ली, हरियाणा, पंजाब,राजस्थान,हिमाचल प्रदेश तथा जम्मू-कश्मीर के क्षेत्र प्रचारक की जिम्मेदारी दी गयी। सरल व हंसमुख स्वभाव के होने के बाद भी वे अनुशासन और काम के प्रति बहुत कठोर थे। वे कार्यकर्ता के साथ उसके घर-परिवार वालों की भी पूरी चिन्ता करते थे। उनके भाषण बहुत भावपूर्ण, तर्कशुद्ध तथा ओजस्वी होने के कारण मन-मस्तिष्क पर सीधी चोट करते थे। अतः कार्यकर्ता बार-बार उन्हें सुनना चाहते थे। 1977 से 1989 तक वे इस दायित्व पर रहे। 1989 के बाद उनका स्वास्थ्य प्रवास करने की स्थिति में नहीं रहा। अतः वे विश्व हिन्दू परिषद के केन्द्रीय कार्यालय पर रहने लगे। परिषद के केन्द्रीय मन्त्री के नाते उनके अनुभव का लाभ सबको मिलने लगा। वे परिवार के मुखिया की तरह वहां रहने वाले सब प्रचारक, पूर्णकालिक कार्यकर्ता तथा कर्मचारियों को स्नेह देते थे। दिल्ली के झंडेवाला कार्यालय पर होने वाले कार्यक्रमों में वे जब अपने पुराने साथियों से मिलते थे, तो हंसते हुए हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से कहते थे – जरा इन गरीबों की तरफ भी एक नजर हो जाए। उनके मन में देशप्रेम और संघ कार्य की तड़प इतनी अधिक थी कि जब उन्हें हृदयाघात हुआ, तो अचेतावस्था में भी वे ‘धन धान्य पुष्पे भरा’नामक एक प्रसिद्ध बांग्ला गीत गा रहे थे। इसके अन्त में आने वाले‘आमार जन्मभूमि’ को वे बहुत जोर से बोलते थे। सैकड़ों प्रचारकों के निर्माता तथा हजारों कार्यकर्ताओं को देश और धर्म के लिए जीना-मरना सिखाने वाले ब्रह्मदेव जी का दिल्ली में ही 24 फरवरी, 2002 को हृदयाघात से देहांत हुआ।