उत्तराखंड समाचार

राजनीतिक दल भी नहीं बना पाए चुनाव को लेकर माहौल ,

कम हो गई आम मतदाताओं की सहभागिता

देहरादून। चुनाव आयोग का राज्य में 75 प्रतिशत मतदान का लक्ष्य रखकर जितनी भी कवायद की, उसके बावजूद राज्य 15 साल पीछे चला गया। सोशल मीडिया से लेकर हर बूथ तक पहुंच, शपथ से लेकर कम वोट प्रतिशत वाले बूथों पर विशेष कोशिशें करने के बाद भी मतदान का आंकड़ा 53 प्रतिशत पर अटक गया। अब सर्विस मतदाता, दिव्यांग, बुजुर्ग, कर्मचारियों के मतदान को मिलाकर खुद चुनाव आयोग इस आंकड़े के 55 से 56 प्रतिशत तक रहने का अनुमान जता रहा है। राज्य में 2004 में 49.25 प्रतिशत, 2009 में 53.96 प्रतिशत मतदान हुआ था। इसके बाद 2014 में मतदान प्रतिशत बढ़कर 62.15 प्रतिशत पर पहुंच गया। फिर 2019 में यह आंकड़ा गिरकर 61.50 प्रतिशत पर आया। इस बार यह आंकड़ा 2009 के बराबर यानी 53.75 प्रतिशत तक आ गया है, जिसमें एक से दो प्रतिशत की ही बढ़ोतरी संभावित है। चुनाव आयोग की पूरी टीम ने प्रदेशभर में स्वीप की मदद से विभिन्न गतिविधियां आयोजित कीं। दावा किया कि 60 लाख लोगों को मतदान की शपथ दिलाई गई, लेकिन नतीजा ये रहा कि 83 लाख में से करीब 42 से 43 लाख ही अपना वोट डालने आए। चुनाव आयोग ने हर गांव के हर बूथ तक पहुंच बनाने के लिए टर्नआउट इंप्लीमेंटेशन प्लान कमेटी गठित की। राज्य स्तर के अलावा हर जिले में मुख्य विकास अधिकारी को इसका नोडल बनाया गया। उन्हें जिम्मेदारी दी गई कि वह सहकारी समितियों व अन्य के माध्यम से हर बूथ तक मतदाताओं को जागरूक करें, ताकि वह मतदान को बाहर आएं। नतीजा निराशाजनक रहा। सोशल मीडिया में चुनाव आयोग ने विशेष प्रयास किए। युवाओं को जागरूक करने के लिए इंस्टाग्राम पर रील की प्रतियोगिता, फेसबुक पर सवालों की क्विज समेत तमाम कवायदें की गईं। ब्रांड एंबेसडर से भी अपील करवाई गई और सोशल मीडिया से मतदाताओं तक भेजी गई। इसका भी असर नजर नहीं आया। चुनाव आयोग ने कम वोटिंग वाले बूथों को खासतौर से चिह्नित किया। यहां मत प्रतिशत बढ़ाने के लिए खुद आयोग के अधिकारी भी मैदान में उतरे। लोगों से मतदान की अपील की लेकिन वह बेअसर रही।

अपर मुख्य निर्वाचन अधिकारी विजय कुमार जोगदंडे का कहना है कि वैसे तो कम मतदान के कई कारण हो सकते हैं। शादी-विवाह अधिक थे। मैदानी जिलों में गर्मी भी ज्यादा थी। उन्होंने कहा, अब रिपोर्ट आने के बाद ही इस मुख्य कारणों की तस्वीर साफ हो सकेगी। ये भी बताया जा रहा कि इस बार राजनीतिक दल भी चुनाव को लेकर उस तरह का माहौल नहीं बना पाए, जिससे आम मतदाताओं की सहभागिता कम हो गई।

 

 

 

 

 

 

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