एकदम सच है : जीवा था, इसलिए शिवा था
जीवाजी की गिनती शिवाजी महाराज के परम सहयोगी और विश्वासपात्र वीरों में होती थी।!
देहरादून। जीवा था, इसलिए शिवा था। एकदम सच है यह। अब कैसे सच है बताते हैं।
यह गाथा है शिवाजी राजे के संरक्षक जीवा महाला की, जिसने उनकी जान बचाई।
किसी खास मौके पर जीवा की शिवाजी राजे से मुलाकात हुई थी और राजे ने जीवाजी महाले की विशेषताओं व गुणों पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने सेना में भर्ती कर लिया। थोड़े ही समय बाद शिवाजी राजे जीवाजी से प्रभावित हुए और उन्हें अपनी सैन्य टुकड़ी का प्रमुख बना दिया।
जीवाजी की गिनती शिवाजी महाराज के परम सहयोगी और विश्वासपात्र वीरों में होती थी।!इनकी वीरता, बुद्धिमानी व साहस पर राजे को बहुत नाज था।
जीवा जी का जन्म 9 अक्टूबर 1635 ई. में महाराष्ट्र राज्य के महाबलेश्वर के पास स्थित कोडंबली नामक गांव में एक साधारण नाई परिवार में हुआ था।
जब बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह के परम विश्वासपात्र सरदार अफजलखान ने बाई नामक विशिष्ट स्थान पर कब्जा कर लिया , तब शिवाजी राजे रणनीति के तहत बाई से जावली चले गए थे। शिवाजी महाराज के प्रकट ना होने पर अफजल को बड़ी चिंता हुई कि आखिर मेरे कब्जा कर लेने पर भी बाई में शिवाजी राजे चुप क्यों हैं? वह कोई नया कदम क्यों नहीं उठा रहे हैं? अफजल खान ने अपने वकील और विश्वासनीय कृष्ण भास्कर कुलकर्णी को इस काम में लगाया कि वह शिवाजी राजे को समझौता वार्ता के लिए राजी करें। येन केन प्रकारेण कृष्ण भास्कर कुलकर्णी शिवाजी राजा और अफजलखान की मुलाकात कराने को सक्रिय हो गया और अपने सूत्रों के जरिए वह शिवाजी महाराज से मिला तथा अफजलखान से समझौते का प्रस्ताव रखा। शिवाजी महाराज को इस बात पर तनिक भी विश्वास नहीं था फिर भी शिवाजी राजे ने हामी भरते हुए कहा कि ठीक है इसके लिए मैं तैयार हूं लेकिन इस शर्त पर कि अफजलखान अपने साथ लाव लश्कर या फौज फाटा ना लाए तो ही मैं किले के बाहर मिलूंगा!”
अफजलखान खुश हुआ कि चलो समझौता प्रलोभन के बहाने ही वह मिलने को तैयार तो हुआ। अफजल अपने लाव लश्कर सहित प्रतापगढ़ किले की ओर रवाना हुआ और राजे के गुप्तचरों ने फौज फाटा सहित प्रतापगढ़किले के पास अफजल खान के पहुंचने की सूचना दी तो शिवाजी महाराज ने अपने दूत और विश्वस्त वकील गोपीनाथ पथ से अफजल को यह कहला कर भेजा कि फौजियों की उपस्थिति में वह आप से नहीं मिलेंगे, क्योंकि उन्हें आपके फौज से डर लगता है!”
राजे ने नकली भय का नाटक करते हुए कहलवाया कि मैं दूसरे दिन स्थान विशेष व अमुक समय में आप से मुलाकात कर लूंगा जिसमें दोनों लोग बिना शस्त्र के मिलेंगे। इस अवसर पर दोनों पक्ष के दस दस सिपाही व एक खास सेवक या अंगरक्षक साथ रहेंगे, लेकिन वह दूर रहेंगे। इस पर अफजल खान ने अपनी सहमति दे दी। अफजल खान का निजी संरक्षक सैयद बण्डा जो देखने में बड़ा ही खूंखार था, उसके विकल्प के लिए शिवाजी राजे ने अपने लंबे चौड़े जवान जीवाजी महाले को चुना। जीवाजी महाले को बुलाकर सारी योजना तय कर ली गई। शिवाजी महाराज के खास विश्वासपात्र योद्धा जीवाजी सैयद बण्डा से किसी भी मामले में कम नहीं थे।!जीवाजी बहुत वीर पराक्रमी, साहसी, चतुर , जांबाज और दौड़पट्टा हथियार चलाने में माहिर थे। रात्रि में ही सारी योजना तैयार कर ली गई। जीवाजी को सारी बातें समझा दी गई तथा आवश्यक व्यवस्थाएं भी पूरी कर ली गईं। योजना के कार्यान्वयन की पूर्ण जिम्मेदारी जीवाजी महाले को सौंपने के बाद शिवाजी महाराज आश्वस्त होकर रात में सो गए। सुबह जल्दी ही तैयार होकर अफजल खान शामियाने में आकर शिवाजी राजे का इंतजार करने लगा। अफजल खान के साथ उसका अंगरक्षक सैयद बण्डा व कुछ हथियारबंद सिपाही थे। कुछ देर बाद अफजल ने कहा गंगाधर पथ देखो शिवाजी महाराज क्यों नहीं आ रहा है।!अफजल खान का दूत शिवाजी महाराज के दूत से मिला तो पता चला कि शिवाजी राजे बण्डा से बहुत डरते हैं बण्डा को यहां से दूर किया जाए तो शिवाजी महाराज आएंगे। महाराज का कृत्रिम भय का नाटक काम कर रहा था। फिर अफजल ने बण्डा को वहां से दूर किया और उसके दूर जाते ही शिवाजी राजे वहां पर तुरंत आ गए। अफजल खान की आंखें चमकीं।गले मिलने जैसा उपक्रम करते हुए अफजल खान अपनी लंबी बाहें फैलाए एक भारी-भरकम शरीर का लंबा चौड़ा इंसान था। अचानक उसने बाएं भुजा से शिवाजी महाराज की गर्दन दबा ली और दाएं हाथ से अपनी छिपी हुई कटार निकालकर शिवाजी राजे पर वार कर दिया। महाराज भी पूरी तैयारी से आए हुए थे , क्योंकि उन्हें मालूम था कि अफजल खान विश्वासघात करेगा। इसलिए वह अपनी पोषाक के नीचे सुरक्षा कवच चिलखत पहने हुए थे तथा दोनों हाथों में बाघनखा पहने थे। सुरक्षा कवच के कारण अफजल खान का वार बेकार गया और तभी झट से शिवाजी महाराज ने अपने हाथों में पहले बाघनखों से अफजल खान का पेट फाड़ डाला। अफजल नीचे गिर गया और चिल्लाया इसी बीच जिवाजी भी वहां तुरंत पहुंच गए।
अफजल खान को शिवाजी महाराज द्वारा मारते देख कृष्ण भास्कर कुलकर्णी ने तलवार से शिवाजी के सिर पर प्रहार किया। शिरस्त्राण पहने होने के चलते शिवाजी राजे का कुछ नहीं बिगड़ा , सिर्फ हल्की सी नाम मात्र की चोट जरूर लगी जिससे हल्का सा रक्त निकल आया।
इसी बीच जीवाजी ने अपनी तलवार से एक ही वार में कुलकर्णी की दाहिनी भुजा काट दी और एक तलवार शिवाजी राजे को भी थमा दिया।
इसी क्षण जीवा ने एक और वार करके कुलकर्णी की बाईं भुजा भी काट दी।
रही सही कसर शिवाजी राजे ने एक ही भरपूर वार से कुलकर्णी का सिर धड़ से अलग करके पूरी कर दी। दोनों दुश्मनों को धोखे का फल तत्काल ही मिल गया। चिल्लाहट के बीच सैयद बण्डा दौड़ते हुए वहां पहुंच गया और वेग से दौड़पट्टा का करतब दिखाना चाहा। एक क्षण के लिए शिवाजी राजे का ध्यान जैसे ही दूसरी ओर गया और तभी सैय्यद बंडा उनकी ओर पट्टा ताने दौड़ा।
पर जीवा के रहते, भला शिवा का क्या बिगड़ सकता था। सैय्यद बंडा के राजे के नजदीक आते ही जीवाजी महाले ने पुनः बण्डा के दाहिने बाजू पर तलवार का करारा प्रहार किया जिससे उसकी बाजू कट कर गिर गई तथा दूसरे वार पर बाईं भुजा और तीसरे वार पर सर धड़ से अलग कर दिया।
इस प्रकार कुछ ही क्षणों में तीनों अफजल खान, कुलकर्णी, और अंगरक्षक बण्डा मारे गए।
यह सारी घटनाएं इतनी तेजी से हुई कि शिवाजी महाराज भी हैरान थे। वह कभी अफजल को, कभी कुलकर्णी को और कभी बण्डा को देखते तो कभी जीवाजी महाले को। विद्युत गति से हुए जीवाजी के इस युद्ध कौशल को देखकर शिवाजी महाराज बहुत प्रसन्न हुए और बोले…”धन्य हो वीर आज तुम जीवाजी ना होते , तो यह शिवाजी ना होता।””
महाराज ने आगे कहा….”आज की विजय तुम्हारी विजय है!” इतना कहते ही शिवाजी राजे का गला रूंध आया और आंखों से अश्रुधार बह निकली। उन्होंने जीवाजी को गले लगा लिया।
इस घटना के कुछ समय बाद शिवाजी राजे की ओर से बीजापुर के बादशाह के साथ हुए युद्ध में सिंहगढ़ किले को फतह करते समय जीवाजी महाले लड़ते हुए शहीद हो गए! फिर भी इस युद्ध में जीत शिवाजी महाराज की ही हुई थी! और उन्होंने सिंहगढ़ किले पर कब्जा कर लिया था!
जीवा जैसे योद्धा धन्य थे जो उन्हें इस मिट्टी का सपूत होने का सौभाग्य मिला और साथ ही धन्य है यह मिट्टी भी, जो इसने ऐसे सपूत जन्मे!
थे जीवाजी…इसलिए थे शिवाजी!”
इस कथन को सार्थक करने वाला, कोंकड की लाल मिट्टी से बना,उमरठ गांव का वह मर्द मावला, आज भले ही हमारे बीच न हो, किंतु भवानी का वह वीर आज भी इस कथन के साथ आज भी महाराष्ट्र में बड़े आदर के साथ याद किया जाता है!