उत्तराखंड में जमकर उड़ा अबीर-गुलाल, देवभूमि में बिखरे होली के रंग
राजधानी दून में चढ़ा होली का रंग, जमकर थिरके लोग, हर कोई रंगा

देहरादून, 14 मार्च। राजधानी दून में रंगों के पर्व होली का त्योहार धूमधाम से मनाया गया। होली हर्ष और उल्लास के साथ मनाई गई। इस दौरान सभी ने एक दूसरे को अबीर-गुलाल लगाते हुए होली की शुभकामनाएं दी। इस अवसर पर दून घाटी में लोगों ने पारंपरिक गीत-श्याम मुरारी के दर्शन को जब विप्र सुदामा आए हरि, आयो वसंत बहार, शिव शंकर खेले होली, फागुन में खेला होली, शिव के मन माहि बसे काशी आदि खड़ी होली के गीत भी गाए। रंगों का त्योहार होली पूरे उत्साह और परंपराओं के साथ मनाया गया। कुमाऊं में होली का त्योहार एक अनूठी सांस्कृतिक परंपरा के रूप में मनाया जाता है। यहां की पारंपरिक खड़ी होली पुरुषों द्वारा गाई जाती है, जिसमें शास्त्रीय रागों और ढोल-मंजीरों की थाप पर होली के गीत गाए जाते हैं।
कुमाऊं के अलग-अलग शहरों में होली का रंग सब पर चढ़ा हुआ था, कुमाऊं में होली का त्योहार एक अनूठी सांस्कृतिक परंपरा के रूप में मनाया जाता है। यहां की पारंपरिक खड़ी होली पुरुषों द्वारा गाई जाती है, जिसमें शास्त्रीय रागों और ढोल-मंजीरों की थाप पर होली के गीत गाए जाते हैं। खड़ी होली, बैठकी होली में पुरुष पारंपरिक वेशभूषा में सज-धज कर एक स्थान पर खड़े होकर समूह में होली गाते हैं। यह आयोजन रंगों के साथ-साथ संगीत और भक्ति से सराबोर होता है। ऐसा माना जाता है कि कुमाऊं में खड़ी होली की परंपरा चंद राजाओं के शासनकाल से चली आ रही है। यह एक राजसी परंपरा थी, जो धीरे-धीरे आम जनता तक पहुंची और आज पूरे कुमाऊं की पहचान बन चुकी है। पहले इसमें बुजुर्गों की भागीदारी अधिक होती थी, लेकिन अब युवाओं का भी इसमें खासा उत्साह देखने को मिल रहा है।
सुबह होते ही कहीं फूलों से होली खेली गई तो कहीं, रंग और गुलाल लगाकर एक दूसरे को बधाई दी। होली के पर्व की मस्ती में पहाड़ से मैदान तक सराबोर नजर आया। गढ़वाल में भी होली की धूम रही। लोगों ने पहाड़ी गीतों पर ढोल की थाप पर जमकर नृत्य किया। पहाड़ों की रानी मसूरी होली रंग में डूबी रही। जगह-जगह कार्यक्रम आयोजित किए गए। कार्यक्रमों में लोग जमकर झूमे। उत्तराखंड से लगी चीन सीमा की अंतिम चौकी नाभीढांग (13925 फीट) में आईटीबीपी के जवानों ने माइनस 4 डिग्री तापमान में धूमधाम से होली मनाई। रंग,गुलाल और अबीर से एक- दूसरे को सराबोर करने की होड़ और होली के गीतों की मस्ती के साथ रंगों का त्योहार होली देहरादून में हर्षोल्लास के साथ मनाया गया। क्या अमीर, क्या गरीब सभी एक ही रंग में नजर आ रहे थे। हर तरफ होली की धूम थी। बच्चे, बूढ़े,जवान सभी होली की मस्ती में थे। एक दिन पहले होलिका दहन के बाद से ही लोग होली के रंग में रंगने लगे थे। सुबह होते- होते लोग होली की मस्ती में डूब गए। होली है, होली है की गूंज हर गली, हर मुहल्ले में गूंजने लगी। बच्चे सुबह होने का इंतजार करने लगे। शुक्रवार की सुबह मौसम में ठंडापन था, लेकिन यह ठंडापन बच्चों के उत्साह को रोकने में विफल रहा। यहीं हाल आमजनों का भी रहा। सुबह 10 बजे के बाद हर कोई होलियाना मुड़ में नजर रहा था। सड़को पर मतवालों की टोली चल रही थी जिनका काम हर आने जाने वालों को रंगों से सराबोर करना था।
गांव हो या शहर हर जगह होली की उमंग और उत्साह एक समान था। बच्चे सुबह से ही रंग, पिचकारी लेकर घर से निकल गए और अपने हम उम्र साथियों के साथ होली के आनंद में मशगूल हो गए। युवाओं की भी अपनी अगल महफिल जमीं थी। यह नजारा मुहल्ले के हर कॉलोनी, गली और चौक चौराहे पर दिख रहा था। महिलाओं की टोली भी किसी से कम नहीं थी। घर की छत या अपार्टमेंट की छत पर महिलाओं की महफिल जमी थी। पुरूषों की तरह महिलाओं ने भी होली का आनंद उठाया। सभी एक- दूसरे को रंगने में जुटी हुई थी। होली में लजीज व्यंजनों के बिना त्योहार अधूरा माना जाता है। होली की बधाई देने वालों की भी कमी नहीं थी। समूह में बंट कर लोग एक- दूसरे के घर पहुंचने और गुलाल लगा कर एक- दूसरे को होली की बधाई दी। बधाई देने का क्रम देर शाम तक जारी रहा।
डॉक्टर आचार्य सुशांत राज का कहना हैं की होली वसंत ऋतु में मनाया जाने वाला एक महत्वपूर्ण भारतीय त्यौहार है। यह पर्व हिंदू पंचांग के अनुसार फाल्गुन मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। होली रंगों का तथा हँसी-खुशी का त्योहार है। यह भारत का एक प्रमुख और प्रसिद्ध त्योहार है, जो आज विश्वभर में मनाया जाने लगा है। होली भारत का अत्यंत प्राचीन पर्व है जो होली, होलिका या होलाका नाम से मनाया जाता था। होली के पर्व से अनेक कहानियाँ जुड़ी हुई हैं। इनमें से सबसे प्रसिद्ध कहानी है प्रह्लाद की। माना जाता है कि प्राचीन काल में हिरण्यकशिपु नाम का एक अत्यंत बलशाली असुर था। अपने बल के अहंकार में वह स्वयं को ही ईश्वर मानने लगा था। उसने अपने राज्य में ईश्वर का नाम लेने पर ही पाबंदी लगा दी थी। हिरण्यकशिपु का पुत्र प्रह्लाद ईश्वर भक्त था। प्रह्लाद की ईश्वर भक्ति से क्रुद्ध होकर हिरण्यकशिपु ने उसे अनेक कठोर दंड दिए, परंतु उसने ईश्वर की भक्ति का मार्ग न छोड़ा। हिरण्यकशिपु की बहन होलिका को वरदान प्राप्त था कि वह आग में भस्म नहीं हो सकती। हिरण्यकशिपु ने आदेश दिया कि होलिका प्रह्लाद को गोद में लेकर आग में बैठे। आग में बैठने पर होलिका तो जल गई, पर प्रह्लाद बच गया। ईश्वर भक्त प्रह्लाद की याद में इस दिन होली जलाई जाती है। प्रतीक रूप से यह भी माना जाता है कि प्रह्लाद का अर्थ आनन्द होता है। वैर और उत्पीड़न की प्रतीक होलिका (जलाने की लकड़ी) जलती है और प्रेम तथा उल्लास का प्रतीक प्रह्लाद (आनंद) अक्षुण्ण रहता है। प्राचीन काल में लोग चन्दन और गुलाल से ही होली खेलते थे। समय के साथ इनमें भी बदलाव देखने को मिला है। कई लोगों द्वारा प्राकृतिक रंगों का भी उपयोग किया जा रहा है, जिससे त्वचा या आँखों पर किसी भी प्रकार का कुप्रभाव न पड़े।