चुनाव में मेरा बहुत कुछ दांव पर : हरीश रावत
चरम की ओर बढ़ने के लिए तैयार चुनाव की प्रक्रिया : हरीश
देहरादून। उत्तराखंड राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत का कहना हैं की चुनाव की प्रक्रिया अब चरम की ओर बढ़ने के लिए तैयार है, 28 जनवरी नामांकन की अंतिम तिथि के बाद हमें सब कुछ चुनाव प्रचार में झौंकना पड़ेगा। इस चुनाव में यदि कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर है और मेरा भी बहुत कुछ दांव पर है तो उत्तराखंड और उत्तराखंडियत का भी बहुत कुछ दांव पर है।
आज उत्तराखंड राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत दिल्ली से देहरादून पहुंच गये हैं। जॉलीग्रांट एअरपोर्ट पर उनका कार्यकर्ताओं ने स्वागत किया। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत ने अपने फेसबुक पेज पर पोस्ट जारी करते हुये कहा की एक आवश्यक कर्तव्य की पूर्ति के लिए कुछ दिन दिल्ली में रहने के बाद अब उत्तराखंड के लिए प्रस्थान कर रहा हूंँ, मन बहुत आह्लादित है। चुनाव की प्रक्रिया अब चरम की ओर बढ़ने के लिए तैयार है, 28 जनवरी नामांकन की अंतिम तिथि के बाद हमें सब कुछ चुनाव प्रचार में झौंकना पड़ेगा। इस उद्देश्यपूर्ण प्रस्थान/यात्रा के मौके पर चुपके-चुपके से मेरे कानों में बहुत ही भाव पूर्ण तरीके से कह रहा है कि हरीश रावत कर्मभूमि उत्तराखंड और उत्तराखंडियत तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस चुनाव में यदि कांग्रेस का बहुत कुछ दांव पर है और मेरा भी बहुत कुछ दांव पर है तो उत्तराखंड और उत्तराखंडियत का भी बहुत कुछ दांव पर है। उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था और अनेका अनेक विभागों की आंतरिक व्यवस्थाएं विशेष तौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य का ढांचा पूरी तरीके से चरमरा गया है। उत्तराखंडियत, इस सरकार के लिए जो आज है एक अपरिचित शब्द है। राज्य आंदोलन की भावनाएं, जिन भावनाओं को दूर गांव में रह रहा व्यक्ति याद करने और उन्हें गुनगुनाने का प्रयास कर रहा है, उसके कानों में हर समय सहस्त्र घंटों का उद्घोष “आज दो-अभी दो, उत्तराखंड राज्य दो” गूंज रहा है, उसको लक्ष्यगत उच्चारित नारे उसके मन को गुदगुदा रहे हैं, मगर इन 5 सालों के अंतराल ने उसकी प्रतीक्षा को कि वो भी विकास में सक्रिय साझेदार बन सकेगा, एक सम्मानपूर्ण जिंदगी का हकदार बन सकेगा, उसकी प्रतीक्षा कुछ लंबी होती जा रही है। हरेला, चैतोला, उत्तरायणी, फूलदेई, केवल उस तक सीमित रहती जान पड़ रही है, उसकी अपनी बनाई हुई सरकार इन सरोकारों को भूल रही है, झूमेलो और झोड़ा अब उसे सरकार की प्राथमिकता में नजर नहीं आ रहे हैं, वो प्रतीक्षारत है उन मधुर गीतों और कंठ स्वरों को सुनने के लिए मगर अब सरकार का ध्यान उस तरफ नहीं है, उसके अपने पकवान, परंपरागत अन्न, वस्त्र और आभूषण केवल कुछ लोगों की चर्चाओं में हैं। लगता है सरकार जानबूझकर उनको विस्मृत कर देना चाहती है/भूल जाना चाहती है। भाषा-बोली, अपनत्व गुण और मडुवे की कहानी ऐसा लगता है कि कभी दादा-दादी से ही सुनते थे। आज की सरकार की प्राथमिकताओं में ये शब्द हट गए हैं, उनकी प्राथमिकताओं में गांव, गाड़-गधेरे, डांडे-कांडे सब दूर हो गए हैं, जिन्होंने उत्तराखंड और उत्तराखंडियत के कंठ स्वरों को गुंजायमान किया उनकी समझ में यह आ ही नहीं पा रहा है कि ये क्या हो रहा है! कोई मुझसे कह रहा है कि हरीश रावत तुमने 14 साल बाद जिन प्राथमिकताओं को निर्धारित किया था, लड़ते, संघर्ष करते उत्तराखंडियत की जिन लकीरों को खींचा था, वो लकीरें पुकार-पुकार के कह रही हैं क्या ये आगे भी उकेरी जाएंगी? ये और गहरी होंगी? क्या उत्तराखंडियत का झंडा और ऊंचाई पर फहराएगा? चुनौती आज सत्ता की नहीं है, वो कांग्रेस की चुनौती है, वो हरीश रावत की चुनौत हैै, मगर उत्तराखंड के लोगों की चुनौती उत्तराखंडियत और अपनी परंपराओं व संस्कारों, अपनी संस्कृति, अपने राज्य आंदोलन की मूल भावना की रक्षा करना है। वो इस घने होते कोहरे में इस चुनाव को एक आशा के तौर पर देख रहे हैं और मैं उन सभी आशावान लोगों से कहना चाहता हूंँ कि, एक राजनीतिक व्यक्ति के तौर पर यह सत्यता है कि हम सरकार बनाने की लड़ाई भी लड़ रहे हैं। मगर मैं उतनी ही शिद्दत से उत्तराखंड, उत्तराखंडियत और राज्य आंदोलन की मूल भावनाओं को फिर राज्य की प्राथमिकताओं में लाने की लड़ाई भी लड़ रहा हूंँ। यदि ये समय के बदलते परिवेश में उत्तराखंड के लिए एक अंतिम अवसर है, उत्तराखंडियत के झंडे को बुलंद करने का तो मेरे लिए भी यह एक अंतिम अवसर है कि मैं, उत्तराखंड के लिये कुछ ऐसा करके जाऊं जिसकी सबको चाहत है, जो सबका अभीष्ट है, जो हमारे ईष्ट देवता, कुल देवता का आदेश है।