उत्तराखंड समाचार

इस वर्ष नया ध्वज दंड लगभग 85 फीट ऊंचा रहेगा

होली के पांचवें दिन होता है झंडेजी मेले का आयोजन

देहरादून। हर साल होली के पांचवें दिन उत्‍तराखंड की राजधानी देहरादून में एतिहासिक झंडेजी मेले का आयोजन होता है। जिसमें देश-विदेश संगत पहुंचतीं हैं। इस बार श्री गुरु रामराय दरबार साहिब में पंचमी के दिन 22 मार्च को झंडेजी के आरोहण के साथ मेला शुरू होगा। झंडा मेले में हर तीन वर्ष में झंडेजी के ध्वजदंड को बदलने की परंपरा रही है। इससे पूर्व वर्ष 2020 में ध्वजदंड बदला गया था। श्री झंडा जी मेला प्रबंधन समिति के व्यवस्थापक व मेलाधिकारी केसी जुयाल ने बताया कि अपरिहार्य परिस्थिति में किसी भी वर्ष ध्वज दंड को बदला जा सकता है। इसलिए इस वर्ष नया ध्वज दंड लगभग 85 फीट ऊंचा रहेगा। नए ध्वजदंड को दुधली के जंगलों से लाकर एसजीआरआर पब्लिक स्कूल, मोथरावाला में रखा गया है।

झंडा मेला होली के पांचवें दिन देहरादून स्थित श्री दरबार साहिब में झंडेजी के आरोहण के साथ शुरू होता है, जिसमें बड़ी संख्या में देश-विदेश की संगत पहुंचती हैं। वर्ष 2020 और 2021 में कोरोना के बढ़ते संक्रमण को देखते हुए मेला संक्षिप्त रूप से ही आयोजित हुआ था। लेकिन इस साल कोरोना संक्रमण कम होने के कारण इसके भव्‍य आयोजन की संभावना बन रही है। यह मेला करीब एक माह तक चलता है। जिसमें स्थानीय के साथ ही पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के व्यापारी दुकानें सजाते हैं, लेकिन इस बार मेला प्रबंधन समिति को कोरोना के मद्देनजर प्रशासन की गाइडलाइन का इंतजार है। सिखों के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय महाराज 1675 में चैत्र मास कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन देहरादून पहुंचे थे। इसके एक साल बाद 1676 में इसी दिन उनके सम्मान में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। इस आयोजन से ही झंडेजी मेले की शुरूआत हुई। जो अब देहरादून का वार्षिक समारोह बन गया है। श्री गुरु रामराय महाराज ने दरबार में सांझा चूल्हे की स्थापना की। ऐसा इसलिए किया गया ताकि दरबार की चौखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न लौटे। पंजाब में जन्मे गुरु रामराय महाराज में बचपन से ही कई अलौकिक शक्तियां थीं। उन्होंने छोटी उम्र में ही असीम ज्ञान प्राप्‍त कर लिया था। इसके साथ ही उन्‍होंने सामाजिक कार्य भी किए। उनके सामाजिक कार्यों से समाज को नई दिशा भी मिली। श्री गुरु रामराय को मुगल बादशाह औरंगजेब ने हिंदू पीर (महाराज) की उपाधि दी थी। महाराज ने छोटी उम्र में वैराग्य धारण कर लिया था और संगतों के साथ भ्रमण पर निकल पड़े। अपने भ्रमण के दौरान वह देहरादून आए। दून पहुंचकर खुड़बुड़ा के पास उनके घोड़े का पैर जमीन में धंस गया और उन्होंने संगत को यहीं पर रुकने का आदेश दिया। खुड़बुड़ा के पास रुकने पर औरंगजेब ने गढ़वाल के राजा फतेह शाह को उनका पूरा ख्याल रखने का आदेश दिया। तब महाराज ने चारों दिशाओं में तीर चलाए और जहां तक तीर गए, उतनी जमीन पर अपनी संगत को ठहरने का हुक्म दिया। महाराज के यहां डेरा डालने के कारण इसे डेरादून कहा गया जो बाद में डेरादून से देहरादून हो गया। शुरूआत में मेले में केवल पंजाब और हरियाणा से संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं। लेकिन, धीरे-धीरे झंडेजी की ख्याति दुनियाभर में फैली और हर दिन झंडेजी के दर्शनों को श्रद्धालु पहुंचने लगे। जिनके लिए सांझा चूल्हा का विस्‍तार किया गया। झंडा मेले के दौरान यह लाखों की संख्‍या में भक्‍त पहुंचते हैं। इसलिए अलग-अलग स्थानों पर लंगर चलाए जाते हैं। लंगर की पूरी व्यवस्था दरबार की ओर से ही होती है। मेले में झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की परंपरा है। होली के पांचवें दिन पूजा-अर्चना के बाद पुराने झंडेजी को उतारा जाता है और ध्वजदंड में बंधे पुराने गिलाफ हटाए जाते हैं। जिसके बाद दरबार साहिब के सेवक दही, घी व गंगाजल से ध्वजदंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद झंडेजी पर गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू होती है। झंडेजी पर पहले सादे (मारकीन के) और फिर सनील के गिलाफ चढ़ाए जाते हैं। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है।

दरबार साहिब में अब तक के महंत

महंत औददास (1687-1741)

महंत हरप्रसाद (1741-1766)

महंत हरसेवक (1766-1818)

महंत स्वरूपदास (1818-1842)

महंत प्रीतमदास (1842-1854)

महंत नारायणदास (1854-1885)

महंत प्रयागदास (1885-1896)

महंत लक्ष्मणदास (1896-1945)

महंत इंदिरेश चरण दास (1945-2000)

महंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन)

 

 

 

 

 

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