गुरु रामराय महाराज के देहरादून आगमन की खुशी में हर साल लगता है झंडा मेला
झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी।
देहरादून। सिखों के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय महाराज के देहरादून आगमन की खुशी में हर साल झंडा मेला लगता है। वर्ष 1675 में चैत्र मास कृष्ण पक्ष की पंचमी को गुरु रामराय महाराज ने दून में कदम रखा था। इसके बाद 1676 से यह उत्सव मनाया जाता है। मेले में झंडे जी पर गिलाफ चढ़ाया जाता है। चैत्र में कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन पूजा-अर्चना कर पुराने झंडे जी को उतारकर ध्वजदंड में बंधे पुराने गिलाफ, दुपट्टे आदि हटाए जाते हैं। दरबार साहिब के सेवक दही, घी और गंगाजल से ध्वज दंड को स्नान कराते हैं। इसके बाद झंडे जी को गिलाफ चढ़ाने की प्रक्रिया शुरू होती है। सबसे ऊपर दर्शनी गिलाफ चढ़ाया जाता है। पवित्र जल छिड़कने के बाद श्रद्धालु रंगीन रुमाल, दुपट्टे आदि बांधते हैं। कहा जाता है कि पहले पंजाब और हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं। इसके बाद झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी। अब लाखों श्रद्धालु झंडे जी के दर्शन करने पहुंचते हैं। दरबार साहिब के आंगन में सद्भाव के सांझा चूल्हे से रोजाना हजारों लोग एक ही छत के नीचे भोजन ग्रहण करते हैं। अलग-अलग स्थानों पर भी लंगर चलते हैं।
देहरादून के जन्म और विकास की गाथा यहीं से आरंभ होती है। नानक पंथ के सातवें गुरु हरराय महाराज के ज्येष्ठ पुत्र गुरु रामराय ने इसी स्थान पर झंडा चढ़ाया था। इसमें समाहित है एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परंपरा, जो दून में पनपी और पंजाब, हरियाणा, यूपी, हिमाचल व दिल्ली तक फैल गई। वर्ष 1675 में चैत्र कृष्ण पंचमी के दिन गुरु रामराय महाराज के कदम दून की धरती पर पड़े। उनकी प्रतिष्ठा में एक बड़ा उत्सव मनाया गया। यही से झंडा मेला की शुरुआत हुई, जो कालांतर में दूनघाटी का वार्षिक समारोह बन गया। देहरादून में इस साझा चूल्हे की नींव दरबार साहिब श्री गुरु रामराय के आंगन में वर्ष 1675 में चैत्र पंचमी के दिन पड़ी। यही देहरादून में ऐतिहासिक झंडा मेला की शुरुआत हुई। उस समय देहरादून एक छोटा गांव हुआ करता था। मेले में पहुंचने वाले लोगों के लिए भोजन का इंतजाम करना आसान नहीं था। इसी को देखते हुए श्री गुरु रामराय महाराज ने ऐसी व्यवस्था बनाई कि दरबार की चौखट में कदम रखने वाला कोई भी व्यक्ति भूखा न लौटे। इसके बाद बीते 337 साल से दरबार साहिब में चूल्हे की आंच ठंडी नहीं पड़ी। इस चूल्हे ने अपनी चौखट पर आए किसी भी व्यक्ति से कभी यह सवाल नहीं किया कि उसका मजहब क्या है। यह भेद करना नहीं, भेद मिटाना जानता है, इसीलिए इंसानियत का ‘सांझा चूल्हा’ बन गया। जब इस मेले की शुरुआत हुई उस दौर में पंजाब व हरियाणा से ही संगतें दरबार साहिब पहुंचती थीं, लेकिन धीरे-धीरे झंडे जी की ख्याति देश-दुनिया में फैलने लगी। हर दिन झंडे जी के दर्शनों को श्रद्धालुओं का सैलाब उमड़ने लगा और इसी के साथ विस्तार पाने लगा दरबार साहिब के आंगन में खड़ा सद्भाव का यह सांझा चूल्हा। आज भी यहां हर दिन हजारों लोग एक ही छत के नीचे भोजन ग्रहण करते हैं। झंडा मेले के दौरान यह तादाद हजारों में पहुंच जाती है, इसलिए अलग-अलग स्थानों पर लंगर चलाने पड़ते हैं। लंगर पूरी व्यवस्था दरबार की ओर से ही होती है।
अब तक के महंत :-
महंत औददास (1687-1741)
महंत हरप्रसाद (1741-1766)
महंत हरसेवक (1766-1818)
महंत स्वरूपदास (1818-1842)
महंत प्रीतमदास (1842-1854)
महंत नारायणदास (1854-1885)
महंत प्रयागदास (1885-1896)
महंत लक्ष्मणदास (1896-1945)
महंत इंद्रेश चरण दास (1945-2000)
महंत देवेंद्रदास (25 जून 2000 से गद्दीनसीन)